नन्दा देवी || maa nanda devi history in Hindi ||

उत्तराखंड का इतिहास ..
दोस्तों इस भाग में हम आपको उत्तराखंड की प्रसिद्ध मां नंदा देवी के जीवन के बारे में जानकारी देंगे पेज को लाइक फोलो करें 🙏🙏
जय माता नन्दा देवी

 नन्दा देवी राजजात भारत के उत्तरांचल राज्य में होने वाली एक नन्दा देवी की एक धार्मिक यात्रा है। यह उत्तराखंड के कुछ सबसे प्रसिद्ध सांस्कृतिक आयोजनों में से एक है। यह लगभग १२ वर्षों के बाद आयोजित होता है। अन्तिम जात सन् 2014 में हुयी थी। अगली राजजात सन् 2024 में होगी,

 लोक इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुँमाऊ के कत्युरी राजवंश की ईष्ट देवी थी। देवीदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है लेकिन कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है। नन्दा के कई नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तरांचल में समान रूप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के पूरे प्रदेश में धार्मिकता के सूत्र के रूप में गया है। रूपकुण्ड के नरकंकाल, बगुवासा में स्थित आठवीं शताब्दी की सिद्ध विनायक भगवान गणेश की काली पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं, साथ ही गढ़वाल के पारंपरिक नन्दा जागी (नन्ददेवी की गाथा गाने वाले) भी इस यात्रा की कहानी को बयाँव करते हैं। करते हैं। नन्दादेवी से जुडी जात (यात्रा) दो प्रकार की हैं। वार्षिक जाट और राजजात वार्षिक जात प्रतिवर्ष अगस्त-सितंबर मॉह में होता है। जो कुरूड़ के नन्दा मन्दिर से शुरू होकर वेदनी कुण्ड तक जाती है और फिर लौट आती है, लेकिन राजजात 12 साल या उससे अधिक समयांतराल में होती है। मान्यता के अनुसार देवी की यह ऐतिहासिक यात्रा चमोली के कंसुवा से शुरू होती है और कुरूड़ के मन्दिर से भी दशोली और बधोँ की डोलियाँ राजजात के लिए निकलती हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी, कंसुवा से होमकुंड तक पैदल चलना पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले खेतों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है।
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दुसरा भाग

अलग-अलग रास्तों से ये डोलियाँ यात्रा में मिलती है। इसके अलावा गाँव-गाँव से डोलियाँ और छतौलियाँ भी इस यात्रा में शामिल होती है। कुमाऊँ (कुमॉयू) से भी अल्मोडा, कटारमल और नैनीताल से डोलियाँ नन्दकेशरी में आकर राजजात में शामिल होती है। कंसुवा से शुरू हुई इस यात्रा का दूसरा पड़ाव नौटी है। फिर यात्रा लौट कर कंसुवा आती है। इसके बाद नौटी, सेम, कोटी, भगौती, कुलसारी, चैपडों, लोहाजंग, वाँण, बेदनी, पातर नचौणियाँ से विश्व-विख्यात रूपकुण्ड, शिला-समुद्र, होमकुण्ड से चनण्याँघट (चंदिन्याघाट), सुतोल से घाट होते हुए नन्दप्रयाग और फिर नौटी आकर यात्रा का चक्र पूरा होता है। यह दूरी करीब 280 किलोमीटर है।
इस राजजात में चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) भी शामिल किया जाता है जोकि स्थानीय क्षेत्र में राजजात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है, उसकी पीठ पर रखे गये दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री व अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जोकि होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है। लोगों की मान्यता है कि चौसिंग्या खाडू़ आगे बिकट हिमालय में जाकर लुप्त हो जाता है व नंदादेवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है।
वर्ष 2000 में इस राजजात को व्यापक प्रचार मिला और देश-विदेश के हजारों लोग इसमें शामिल हुए थे। राजजात उत्तराखंड की समग्र संस्कृति को प्रस्तुत करता है। इसी लिये 26 जनवरी 2005 को उत्तरांचल राज्य की झांकी राजजात पर निकाली गई थी। पिछले कुछ वर्षों से पयर्टन विभाग द्वारा रूपकुण्ड महोत्व का आयोजन भी किया जा रहा है। स्थानीय लोगों ने इस यात्रा के सफल संचालन हेतु श्री नन्दादेवी राजजात समिति का गठन भी किया है। इसी समिति के तत्त्वाधान में नन्दादेवी राजजात का आयोजन किया जाता है। 

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